श्री 108 विनिश्चयसागर जी गुरूदेव के 25वें दीक्षा दिवस एवं 50वें जन्म दिवस पर मनाया गया स्वर्णिम रजत महोत्सव

रागा न्यूज़ , चंड़ीगढ़।

परम पूज्य श्रमण अनगाराचार्य 108 श्री विनिश्चयसागर जी महाराज के शिष्य प्रखर वक्ता, जिनवाणी पुत्र परम पूज्य क्षुल्लक श्री 105 प्रज्ञांशसागर जी महाराज के पावन सानिध्य में परम पूज्य श्रमण अनगाराचार्य श्री 108 विनिश्चयसागर जी गुरूदेव के 25वें दीक्षा दिवस एवं 50वें जन्म दिवस स्वर्णिम रजत महोत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में हरियाणा एवं पंजाब की राजधानी चण्डीगढ़ के निकट कालका जी में परम पूज्य क्षुल्लक श्री प्रज्ञांशसागर जी गुरुदेव ने करवाया भक्तामर महामण्डल विधान एवं भक्तामर दीपार्चनम् में कालका, चण्डीगढ़, अमरावती, जीरकपुर आदि जगह से पधारे महानुभावों ने बड़-चढ़ कर पुण्य का अर्जन किया।

यह विधान, पंडित अनुराग जैन के मधुर स्वरों के साथ सम्पन्न हुआ

एवं श्रीमान संजीव जैन लवली सपरिवार ने विधान कराने का सौभाग्य प्राप्त किया जिनके पुण्य की सभी ने अनुमोदना की। इसी अवसर पर परम पूज्य क्षुल्लक श्री प्रज्ञांशसागर जी गुरुदेव ने कहा भगवान की भक्ति भाग्यवान व्यक्ति ही कर सकता है भाग्य हीन नहीं? जो भगवान का सच्चा भक्त होता है उस व्यक्ति के लिए भगवान की भक्ति करने का अवसर प्राप्त होता है जिंदगी में भगवान की भक्ति से बढ़कर कोई वस्तु नहीं यदि जीवन का आत्म तत्व है तो वह भगवान की भक्ति है। जो जिनेंद्र देव की भक्ति करता है उसकी स्वर्ग के देवता भी आकर की भक्ति करते हैं स्वर्ग के देवों के द्वारा व्यक्ति पूजा जाता है ।

मानव जीवन में कलि काल में दान और पूजा ही व्यक्ति के आत्म उद्धार का कारण है। जो व्यक्ति भगवान की भक्ति करता है उस व्यक्ति के निधत्ति और निकाचित जैसे कर्मों को भी नष्ट कर देता है जो हजारों वर्षों तक तपस्या करने पर कर्म निर्जीण नहीं होते हैं ।वह कर्म भगवान की दर्शन और भक्ति के माध्यम से क्षण में नष्ट हो जाते है । भगवान पारसनाथ की स्तुति करते हुए आचार्य कुमुद चंद्र जी महाराज ने कहा चंदन के वृक्ष से लिपटे हुए सर्पों को शीतलता प्राप्त होती है वह हमेशा वन में लिपटे रहते हैं चंदन की वृक्ष से? परंतु जब गरुड़ पक्षी आ जाता है तो चंदन के वृक्ष से लिपटे हुए सर्प इधर उधर भाग जाते है वहां पर कोई नहीं रहता मात्र वृक्ष रह जाते है उसी प्रकार से अनादि काल से लगे हुए कर्म रूपी सर्प हमारे जब गरुण रुपी भगवान के पास हम जाते हैं तो कर्म रूपी सर्प इधर उधर चले जाते हैं अर्थात नष्ट हो जाते हैं यह सिर्फ भगवान को देखने मात्र से जब कर्म नष्ट हो सकती हैं तो उनकी पूजा तो अचिंत्य फल दायी होती है जिस पूजा के माध्यम से देवेंद्र चक्रवर्ती अहमेन्द आदि के पद अपने आप प्राप्त हो जाते हैं वह पूजा व्यक्ति के कष्टों को हरण करने में ही समर्थ है इसलिए व्यक्ति को दर्शन और पूजन हमेशा करते रहना चाहिए

भक्तांमर स्तोत्र में आचार्य मानतुंग जी महाराज ने कहा की जितने शांत परमाणु थे इस संसार में? उनसे तो आप बने हैं ? इसलिए आप से अधिक सुंदर कोई व्यक्ति नहीं है ।आपके सामान शांत चित्र और शांति को देने वाला कोई नहीं और जितने ओवड खावण परमाणु थे उनसे अन्य देव बने हुए हैं इसलिए इधर-उधर भटकते रहते उसी प्रकार से आज के श्रावक है जो इधर-उधर भटकते रहते हैं उनको सच्चे देव का भक्ति करने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होता है इसलिए जिनेंद्र देव की भक्ति का सौभाग्य यदि कोई व्यक्ति को मिलता है तो उसे बड़ा पुण्य आत्मा जीव कोई नहीं हमें अपने जीवन में संसार समुद्र से पार होना है तो आदिनाथ भगवान के चरणों में जाकर के उनकी भक्ति में डूब जाना है उनकी भक्ति में रम जाना है।